अद्भुत है ग्यारहवीं शताब्दी में बना यह मंदिर
यूं तो भारत के अधिकांश राज्य अपनी विशिष्ट पहचान के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं लेकिन जब राजस्थान की बात आती है तो यहां का खानपान, संस्कृति और पहनावा देश-विदेश के सभी लोगों को बेहद आकर्षित करता है. वैसे तो राजस्थान स्थित सभी बड़े पर्यटन स्थलों पर सालभर पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता है लेकिन यहां एक स्थान ऐसा भी है जो है तो बहुत खूबसूरत लेकिन अभी भी दुनिया की नजर में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत है.
भारत के सबसे बड़े थार मरुस्थल और संपूर्ण विश्व में ब्रह्माजी के एकमात्र मंदिर को सहेज कर रखने वाले राजस्थान के झालावाड़ जिले में बसे सूर्य मंदिर की खूबसूरती किसी भी अन्य जगह से नहीं जा सकती है. राजस्थान के झालावाड़ जिले में स्थित इस जगह को पाटन या झालरपाटन के नाम से भी जाना जाता है. इसकी खोज का संपूर्ण श्रेय जालम सिंह नाम के व्यक्ति को जाता है, जिन्होंने वर्ष 1796 में एक कृत्रिम झील के किनारे इसे बसाया था. झालावाड़ एक उपनगर है जिसका नाम मंदिरों की घंटियों के आधार पर रखा जाता है. कहा जाता है कि कुछ ही सदियों में यहां 108 मंदिरों का निर्माण किया गया, जिनमें सबसे आकर्षक मंदिर यहां का सूर्यमंदिर है. उड़ीसा के कोणार्क मंदिर की तर्ज पर बना झालावाड़ का यह सूर्य मंदिर अपनी तरह का एकमात्र ऐसा मंदिर है. इस सूर्य मंदिर का निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी में किया गया था. जमीन से नापा जाए तो इस मंदिर की ऊंचाई लगभग 96 फीट है. मंदिर का यह ऊंचा शिखर यहां आने वाले सैलानियों को खूब लुभाता है.
भगवान शिव को समर्पित एकलिंग जी मंदिर उदयपुर के पास है। यहां शिव की एक अनोखी और बेहद खूबसूरत चौमुखी मूर्ति है जो काले संगमरमर से बनी है। - See more at:
4. कालीघाट, कोलकाता (Kalighat temple, Kolkata) –
इस मंदिर में भैरव की श्याममुखी मूर्ति है। तांत्रिक क्रियाओं के लिए ये मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। देशभर से तांत्रिक और अघोरी सिद्धियों के लिए यहां आते है
9. बालाजी मंदिर, राजस्थान (Mehandipur balaji, Rajasthan) –
यह मंदिर तंत्र की नजर से बहुत पवित्र माना जाता है। कहते है कि जिन लोगो पर प्रेत या आत्मा का साया पड़ जाता है वो यहां झाड़-फूंक के लिए आते है।
दुनिया के सबसे हॉन्टेट प्लेसेज में शुमार 5 पांच ऐसी जगहें हैं जहां अकूत खजाने भरे पड़े हैं, लेकिन ये बेहद डरावने हैं। माना जाता है कि इन रहस्यमय खजानों को खोजने में कई लोगों की मौत भी हो चुकी है। इसके अलावा कई लोगों को खजाने का कुछ हिस्सा भी मिला, लेकिन वो जिंदा नहीं लौट सके।
द अंबेर रूम का निर्माण 1707 ईस्वी में पर्सिया में किया गया था। यह एक पूरी तरह से एक सोने का चेंबर है। 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाजियों ने इस पर कब्जा कर लिया था। इस खजाने को सुरक्षित रखने के लिए इसे अलग-अलग भागों में बांट दिया। इसके बाद 1943 में इसे एक म्यूजियम में प्रदर्शन के लिए रखा गया। लेकिन आश्चर्य तो यहां है कि उसके बाद ये पूरा चेंबर ही गायब हो गया। इसके बाद आज तक चेंबर का पता नहीं चला और जो इसकी तलाश में गए उनकी मौत हो गई।..
ओक आइलैंड (oak island) के रहस्य को सबसे 1795 में कुछ लड़कों द्वारा उजागर किया गया था। इन लड़कों को कनाडा के नोवा स्कोटिया तट के पास एक छोटे से द्वीप पर हल्की रोशनी दिखी थी। इसके बाद जब ये वहां पहुंचे तो उन्होंने पाया कि किसी ने यहां खुदाई की है। इसके बाद जब इन्हीं लड़कों ने वहां और खुदाई की तो उन्हें लकड़ी और नारियल की परतें मिली। इन लड़कों को यहां एक पत्थर भी मिला जिस पर लिखा था कि 40 फीट की गहराई पर दो मिलियन पाउंड गड़े हैं। इसके बाद बहुत से लोगों ने इस खजाने को खोजने के कोशिश की और आज भी खोज कर रहे हैं, लेकिन किसी को अभी तक कुछ नहीं मिला। बल्कि खजाना खोजते समय अब तक 7 लोगों की मौत हो चुकी है।...
अमरीका के दक्षिण-पश्चिम इलाके में सोने की खदान (the lost dutchman mine) थी। 1510-1524 के बीच स्पेन के फ्रांसिस्को वास्क डी कोरोनाडो ने इस खदान को खोजने की कोशिश की। इस खजाने को खोजने के लिए उन्होंने जिन लोगों को इस काम में लगाया उनकी एक के बाद एक मौत हो गई। हालांकि यहां 1845 में डॉन मिगुएल पेराल्टा को कुछ सोना मिला, लेकिन स्थानीय अपाचे आदिवासियों ने उनको मौत के घाट उतार डाला। 1931 में इसी खजाने को खोजने के चक्कर में एडोल्फ रूथ लापता हो गए और इसके 2 साल बाद उनका कंकाल मिला था। 2009 में भी डेनवर निवासी जेस केपेन ने यह खजाना खोजने की कोशिश की थी लेकिन 2012 में उनका शव मिला।
मैक्सिको के राष्टपति बेनिटो जुआरेज ने 1864 अपने सैनिकों को खजाने के साथ सेन फ्रांसिस्को भेजा था। इसमें सोने के सिक्के और कीमती जेवरात भरे थे। इसके बाद एक सैनिक की रास्ते मौत हो गई तो बाकी सैनिकों इस खजाने को रास्ते में ही गाड़ दिया। सैनिकों को ऐसा करते हुए डियागो मोरेना ने देख लिया था और उसने बाद में इस खजाने को निकाला और दूसरी जगह गाड़ दिया। लेकिन इसके कुछ दिनों बाद उसकी मौत हो गई। हालांकि डियागो की मौत के बाद एक दोस्त जीसस मार्टिनेज ने इस खजाने को पाना चाहा लेकिन उसकी भी मौत हो गई। 1885 में बास्क शेफर्ड को इस खजाने का कुछ हिस्सा मिला था, लेकिन वो ही बाद में उसकी मौत का कारण बना। इसके बाद 1939 में इस खजाने की खुदाई की गई, लेकिन कुछ भी नहीं मिला। इस खजाने को खोजने के वालों में से 9 लोगों की मृत्यु हो गई।
अमरीका में मिलफोर्ड के पास एक छोटा द्वीप (charles island) है। लेकिन इस द्वीप को शापित माना जाता है। कहा जाता है कि 1721 में मैक्सिकन सम्राट गुआजमोजिन का खजाना चोरी कर चोरों ने इस द्वीप पर छुपा दिया था। इसके बाद 1850 में कुछ लोग यहां पर खजाने की तलाश में आए लेकिन उनकी भी मौत हो गई। इसके बाद जो भी इस खजाने को खोजने गया उसकी मौत हो गई।
खुशी और उत्साह का प्रतीक क्रिसमस ईसाई समुदाय का सबसे बड़ा त्योहार है। ईसाई समुदाय द्वारा यह त्योहार 25 दिसंबर को यीशु मसीह के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। क्रिसमस से जुुड़ी अनेक परंपराएं व रोचक बाते हैं जैसे क्रिसमस ट्री सजाना, संता का गिफ्ट बांटना व कार्ड भेेजना। ये परंपराएं क्यों है व कब से इनकी शुरुआत हुई आइए जानते हैं इन परंपराओं के बारे में खास बातें….संत निकोलस यानी सांता (Saint Nicholas Santa) –
मान्यता है कि सांता का घर उत्तरी ध्रुव पर रहते और वे उडऩे वाले रेनडियर्स की गाड़ी पर चलते हैं। सांता का यह आधुनिक रूप 19वीं सदी से अस्तित्व में आया उसके पहले ये ऐसे नहीं थे। आज से डेढ़ हजार साल पहले जन्मे संत निकोलस को असली सांता और सांता का जनक माना जाता है, हालांकि संत निकोलस और जीसस के जन्म का सीधा संबंध नहीं रहा है फिर भी आज के समय में सांता क्लॉज क्रिसमस का अहम हिस्सा हैं। उनके बिना क्रिसमस अधूरा सा लगता है।
संत निकोलस का जन्म तीसरी सदी में जीसस की मौत के 280 साल बाद मायरा में हुआ। वे एक रईस परिवार से थे। वे जब छोटे थे तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया। बचपन से ही उनकी प्रभु यीशु में बहुत आस्था थी। वे बड़े होकर ईसाई धर्म के पादरी (पुजारी) और बाद में बिशप बने। उन्हें जरूरतमंदों और बच्चों को गिफ्ट्स देना बहुत अच्छा लगता था। वे अक्सर जरूरतमंदों और बच्चों को गिफ्ट्स देते थे। संत निकोलस अपने उपहार आधी रात को ही देते थे, क्योंकि उन्हें उपहार देते हुए नजर आना पसंद नहीं था। वे अपनी पहचान लोगों के सामने नहीं लाना चाहते थे। इसी कारण बच्चों को जल्दी सुला दिया जाता।
क्रिसमस ट्री (Xmas Tree) –
कहा जाता है जब महापुरुष ईसा का जन्म हुआ तो उनके माता-पिता को बधाई देने आए। देवताओं ने एक सदाबहार फर को सितारों से सजाया। मान्यता है कि उसी दिन से हर साल सदाबहार फर के पेड़ को ‘क्रिसमस ट्री प्रतीक के रूप में सजाया जाता है। इसे सजाने की परंपरा जर्मनी में दसवीं शताब्दी के बीच शुरू हुई और इसकी शुरुआत करने वाला पहला व्यक्ति बोनिफेंस टुयो नामक एक अंग्रेज धर्मप्रचारक था।
इंग्लैंड में 1841 में राजकुमार पिंटो एलबर्ट ने विंजर कासल में क्रिसमस ट्री को सजावाया था। उसने पेड़ के ऊपर एक देवता की दोनों भुजाएं फैलाए हुए मूर्ति भी लगवाई, जिसे काफी सराहा गया। क्रिसमस ट्री पर प्रतिमा लगाने की शुरुआत तभी से हुई। पिंटो एलबर्ट के बाद क्रिसमस ट्री को घर-घर पहुंचाने में मार्टिन लूथर का भी काफी हाथ रहा। क्रिसमस के दिन लूथर ने अपने घर वापस आते हुए आसमान को गौर से देखा तो पाया कि वृक्षों के ऊपर टिमटिमाते हुए तारे बड़े मनमोहक लग रहे हैं।
मार्टिन लूथर को तारों का वह दृश्य ऐसा भाया कि उस दृश्य को साकार करने के लिए वह पेड़ की डाल तोड़ कर घर ले आया। घर ले जाकर उसने उस डाल को रंगबिरंगी पन्नियों, कांच एवं अन्य धातु के टुकड़ों, मोमबत्तियों आदि से खूब सजा कर घर के सदस्यों से तारों और वृक्षों के लुभावने प्राकृतिक दृश्य का वर्णन किया। वह सजा हुआ वृक्ष घर सदस्यों को इतना पसंद आया कि घर में हर क्रिसमस पर वृक्ष सजाने की परंपरा चल पड़ी।
क्रिसमस कार्ड की परंपरा (Tradition of Xmas Card) –
सबसे पहले कार्ड विलियम एंगले द्वारा सन् 1842 में भेजा गया था, क्योंकि वह क्रिसमस का मौका था। इसलिए इसे पहला क्रिसमस कार्ड माना जाता है। कहते हैं कि इस कार्ड में एक शाही परिवार की तस्वीर थी, लोग अपने मित्रों के स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएं देते हुए दिखाए गए थे और उस पर लिखा था विलियम एंगले के दोस्तों को क्रिसमस शुभ हो।
उस जमाने में चूंकि यह नई बात थी, इसलिए यह कार्ड महारानी विक्टोरिया को दिखाया गया। इससे खुश होकर उन्होंने अपने चित्रकार डोबसन को बुलाकर शाही क्रिसमस कार्ड बनवाने के लिए कहा और तब से क्रिसमस कार्डों की शुरुआत हो गई।
केरल का अनंतपुर मंदिर जो कासरगोड में स्थित है, यह केरल का एकमात्र झील मंदिर है। इस मंदिर की यह मान्यता है कि यहां की रखवाली एक मगरमच्छ करता है। ‘बबिआ’ नाम के मगरमच्छ से फेमस इस मंदिर में यह भी मान्यता है कि जब इस झील में एक मगरमच्छ की मृत्यु होती है तो रहस्यमयी ढंग से दूसरा मगरमच्छ प्रकट हो जाता है। दो एकड़ की झील के बीचों-बीच बना यह मंदिर भगवान विष्णु (भगवान अनंत-पद्मनाभस्वामी) का है। मान्यता है कि मंदिर की झील में रहने वाला यह मगरमच्छ पूरी तरह शाकाहारी है और पुजारी इसके मुंह में प्रसाद डालकर इसका पेट भरते हैं।
मान्यता है कि झील में एक मगरमच्छ की मृत्यु होती है तो रहस्यमयी ढंग से दूसरा मगरमच्छ प्रकट हो जाता है।
भारत अपने आप में एक अनूठा देश है जहां हर चीज को धर्म और समाज के साथ जोड़ दिया गया है। हालांकि ऊपर से देखने पर इनका कोई विशेष महत्व नहीं दिखाई पड़ता परन्तु सूक्ष्म रूप से ये हमें मानसिक, शारीरिक तथा आध्यात्मिक रूप से प्रभावित करते हैं। इसी कारण से हमारे पूर्वजों ने कुछ ऐसे धार्मिक नियम बनाएं जो सामाजिक रूप से समाज में उपयोगी तो थे ही, साथ में हमारे शरीर पर भी उनका अच्छा असर होता है। आइए जानते हैं ऐसी ही 10 परम्पराओं के बारे में...
पुरुषों के सिर पर चोटी क्यों
यदि आप यह मानते हैं कि सिर्फ भारतीय पुरुष ही चोटी रखते हैं तो सबसे पहले यह जान लें कि अन्य एशियाई देशों यथा चीन, कोरिया तथा जापान में भी पुरुषों के सिर पर चोटी रखने की परंपरा है। इसके पीछे भी एक वैज्ञानिक कारण बताया जाता है। सुश्रुत ऋषि के अनुसार सिर हमारे सिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहां सहस्त्रार चक्र में शरीर की सभी नसें आकर मिलती है जिसे ब्रह्मरंध्र भी माना गया है। इसी ब्रह्मरंध्र को जागृत करने के लिए पुरुषों में शिखा बंधने की परंपरा शुरू हुई। शिखा रखने से मस्तिष्क का यह हिस्सा सक्रिय हो जाता है और हमारी शक्तियों को बढ़ा देता है।
हमें मंदिर जाकर भगवान की परिक्रमा क्यों करनी चाहिए
भारतीय मंदिरों को वास्तु के विशेष नियमों का पालन करते हुए बनाया जाता है। इसमें मंदिर के गर्भगृह (अथवा मूलस्थान) को इस प्रकार से बनाया जाता है कि वहां पर पृथ्वी की अधिकतम चुंबकीय ऊर्जा उत्पन्न हो सके। गर्भगृह में ही मूर्ति स्थापित की जाती है। साथ ही ईश्वर प्रतिमा के चरणों में तांबे से बने यंत्र, घंटियां, कलश आदि वस्तुएं स्थापित की जाती हैं। तांबा एनर्जी का सुचालक होने के कारण पृथ्वी की सकारात्मक ऊर्जा को प्रतिमा की तरफ आकर्षित करता है। इससे प्रतिमा के चारों तरफ आभामंडल बन जाता है। जब हम प्रतिमा के चारों तरफ परिक्रमा करते हैं तो यह शक्ति हमारे शरीर के अंदर भी प्रवेश करती है। हालांकि यह प्रक्रिया बहुत ही धीमे और अदृश्य रूप में होती है परन्तु लंबे समय तक किसी मंदिर में जाकर परिक्रमा करने पर इसका लाभ स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है।
भारतीय व्रत क्यों करते हैं
आयुर्वेद में बताया गया है कि हमारा शरीर प्रकृति द्वारा बनाई गई स्वसंचालित मशीन है जो 24 घंटे, सातों दिन मृत्यु तक लगातार बिना रूके काम करती रहती है। हमारा पाचन संस्थान भी इसी का एक हिस्सा है। लगातार भोजन करने और उसे पचाने से हमारे पाचन संस्थान पर दबाव पड़ता है जिससे उसमें टॉक्सिक पदार्थ पैदा हो जाते हैं। सप्ताह में एक दिन व्रत करने पर हमारा पेट स्वयं ही इन पदार्थों को बाहर निकाल देता है जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। वैज्ञानिकों के अनुसार नियमित रूप से व्रत करने के कई फायदे हैं, शोध के अनुसार व्रत करने से कैंसर, कार्डियोवस्कुलर डिजीडेज, डायबिटीज, पाचन संबंधी बीमारियां दूर रहती हैं।
सुबह के समय सूर्य नमस्कार तथा सूर्य को अर्ध्य चढ़ाना
सूर्य नमस्कार करने के लिए कुछ नियम बताए गए हैं, यथा इसे सुबह ब्रह्म मुहूर्त में ही करना चाहिए। इसके पीछे भी कई वैज्ञानिक कारण हैं। सबसे पहला सुबह का समय ब्रह्ममूहूर्त माना जाता है इस समय मस्तिष्क की सक्रियता सर्वाधिक होती है, अत: इस समय किया गया कार्य अधिक एकाग्रता तथा मनोयोग से होता है जिससे उसमें सफलता की संभावना बढ़ जाती है। सुबह सूर्य को अर्ध्य चढ़ाते समय गिरते हुए जल से सूर्य के दर्शन करना हमारी आंखों के लिए अच्छा रहता है। इससे आंखों की रोशनी बढ़ती है। इसके साथ-साथ सुबह के समय सूर्य नमस्कार करने से पूरे शरीर का योगाभ्यास हो जाता है तथा शरीर को दिन भर के लिए आवश्यक ऊर्जा शक्ति मिल जाती है।
हम चरण स्पर्श क्यों करते हैं
भारतीयों में अपने से बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करने की परंपरा है, इसके प्रत्युत्तर में बड़े भी हमारे सिर पर अपना हाथ रखकर आशीर्वाद देते हैं। सबसे पहले तो इस तरह चरण छूने से हम अपने बड़ों के प्रति अपनी भावनाएं तथा आदर दिखाते हैं। इसके साथ ही जब हम अपने हाथों से उनके पैर छूते हैं तथा वो अपना हाथ सिर पर रखकर आशीर्वाद देते हैं तो यह तरह का प्राकृतिक सर्किट बन जाता है जिससे उनकी ऊर्जा का प्रवाह हमारे अंदर होने लगता है। उस समय हमारे हाथ की ऊंगलियां तथा सिर रिसेप्टर का कार्य करने लगती हैं तथा हम उनमें मौजूद जैविक ऊर्जा को ग्रहण करने लगते हैं। यही कारण है कि सभी लोग अपने से बड़े विशेष तौर पर साधु-संतों के चरण छूकर उनका आशीर्वाद लेना चाहते हैं।
हम तुलसी की पूजा क्यों करते हैं
तुलसी के पेड़ का आयुर्वेद में बहुत महत्व बताया गया है। इसकी पत्तियों में पारा होता है जिसके कारण इसमें बैक्टीरिया को मारने की क्षमता है। प्रतिदिन एक तुलसी का पत्ता खाने से शरीर स्वस्थ रहता है तथा छोटी-मोटी बीमारियों का शरीर पर असर नहीं होता। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि तुलसी के निकट सांप, मच्छर तथा मक्खियां जैसे हानिकारण जीवन नहीं आते। ऐसे में इसे घर में रखने पर जहां इन जीवों से बचाव होता है वहीं आवश्यकता पडऩे पर तुलसी की पत्तियों का उपयोग भी किया जा सकता है। परन्तु तुलसी की पत्तियों को कभी भी दांतों से नहीं चबाना चाहिए वरन उसे पानी के साथ निगल लेना चाहिए अन्यथा दांतों के खराब होने का खतरा बना रहता है।
हम पीपल की पूजा क्यों करते हैं
यदि उपयोग की दृष्टि पीपल का पेड़ आम व्यक्ति के लिए साधारण हो सकता है परन्तु आयुर्वेद के अनुसार इसका दवाईयों में बहुत प्रयोग होता है। परन्तु पीपल का पेड़ ही एक ऐसा पेड़ है जो रात में भी ऑक्सीजन का निर्माण करता है। पीपल के इसी गुण के चलते हिंदू इसे भगवानस्वरूप मानते हैं तथा इसकी पूजा करते हैं।
महिलाएं हाथों में चूडिय़ां क्यों पहनती हैं
हाथों की कलाई में नसों का जाल होता है जहां हाथ कर आदमी की धड़कन देखी जाती है। यहां पर सही तरह से दबाव देकर शरीर के रक्तचाप को नियमित किया जा सकता है। इसी कारण से औरतों के लिए चूडियां पहनना अनिवार्य किया गया। इससे कलाईयों पर चूडियों का घर्षण होता है और उनकी नसों पर दबाव पड़ता है फलस्वरूप उनका स्वास्थ्य ठीक रहता है।
विवाहित स्त्रियां मांग में सिंदूर क्यों भरती हैं
विवाहित स्त्रियों द्वारा मांग में सिंदूर भरने का कारण उनके वैवाहिक जीवन से जुड़ा हुआ है। सिंदूर को टर्मेरिक लाइम तथा पारे से मिलाकर बनाया जाता है। पारा जहां शरीर के ब्लडप्रेशर को नियमित करता है वहीं औरतों की कामेच्छा को भी उत्तेजित करता है। इससे मस्तिष्क का तनाव भी दूर होता है। इसी कारण से विधवाओं तथा कुंवारी महिलाओं के लिए मांग में सिंदूर लगाना निषेध किया गया है। परन्तु सिंदूर का पूरा फायदा उठाने के लिए ललाट के ठीक बीच में लगाना
हम नाक और कान क्यों छिदवाते हैं
भारतीय महिलाओं में प्रचलित इस परंपरा का संबंध पूरी तरह से शारीरिक स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है। भारतीय चिकित्साशास्त्रियों के अनुसार कान और नाक की कुछ नसों का सीधे दिमाग के सोचने वाले प्रतिक्रिया करने वाले भाग से संबंध होता है। नाक-कान छिदवाने से दिमांग की इन नसों पर दबाव पड़ता है जिससे मस्तिष्क की अतिसक्रियता समाप्त होकर नियंत्रण में आती है।
सत्य घटना – सांप ने काटा, डाकटरों ने मृत घोषित किया, घरवालों ने गंगा में बहाया, 14 साल बाद जिन्दा लौट आया युवक
मंदिर में अंदर और बाहर दोनों ही स्थान में बड़े-बड़े खम्भों का निर्माण किया गया है जो बाहरी क्षेत्र से लेकर भीतर के प्रार्थना कक्ष तक फैले हुए हैं. इन सभी खम्भों पर देवी-देवताओं के चित्रों को उकेरा गया है. निश्चित रूप से यह कारीगरी मंदिर की खूबसूरती में चार-चांद लगाता है. अब अगली बार आप दोस्तों या परिवार के साथ राजस्थान घूमने की योजना बनाएं तो अपने प्लान में झालावाड़ के सूर्य मंदिर को अवश्य शामिल करें.
भारत के इन मंदिरों में होती है तांत्रिक क्रियाएं
भारत अपनी प्राचीन सभ्यता के लिए जाना जाता है। जिसमें पूजा-पाठ से लेकर तंत्र-मंत्र से सम्बंधित विद्याओं का भी समवेश होता है। और पूरे भारत में कई ऐसे मंदिर है, जहाँ तांत्रिक अपनी विद्या का प्रदर्शन कर देवी-देवताओं को खुश करते हैं। इन मंदिरों में जहाँ एक ओर तांत्रिक तंत्र क्रियाओं का प्रयोग करते हैं, वहीं यहं भूत-पिचाशों की समस्या से लोगों को छुटकारा दिया जाता है। आइये जानते हैं कौन-से हैं ये मंदिर, जो तांत्रिकों के गढ़ के नाम से जाने जाते हैं।
1. वेताल मंदिर, ओडिसा (Vetal temple, Orissa)
8वीं सदी में बने भुवनेश्वर के इस मंदिर में बलशाली चामुण्डा की मूर्ति है। बलशाली चामुण्डा काली का ही एक रूप है। इस मंदिर में तांत्रिक क्रियाएं हमेशा चलती ही रहती है।
2. बैजनाथ मंदिर , हिमाचल प्रदेश (Vaijnath temple Himachal)-
इस मंदिर में शिव भगवान का प्रसिद्ध वैधनाथ लिंग है। बैजनाथ मंदिर अपनी तांत्रिक क्रियाओं और यहां का पानी अपनी पाचन शक्तियों के लिए प्रसिद्ध है।
3. एकलिंग मंदिर, राजस्थान (Eklingji temple, Rajasthan) –
4. कालीघाट, कोलकाता (Kalighat temple, Kolkata) –
कोलकाता का कालीघाट तांत्रिकों के लिए बहुत महत्वपूर्ण तीर्थ है। मान्यताओं के अनुसार इस जगह पर देवी सती की उंगलियां गिरी थी।
5. कामाख्या मंदिर, असम (Kamakhya Temple, Assam) –
असम का कामाख्या मंदिर तांत्रिक गतिविधियों का गढ़ माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस जगह पर देवी सती का योनि भाग गिरा था।
6. ज्वालामुखी मंदिर, हिमाचल प्रदेश (Jwalamukhi temple, Himachal) –
यह मंदिर अपने चमत्कार के साथ यहां होने वाली तांत्रिक क्रियाओं के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां एक कुण्ड है, जो देखने पर उबलता दिखाई देता है लेकिन छूने पर पानी ठंडा रहता है।
7. खजुराहो मंदिर, मध्य प्रदेश (Khajuraho temple, Madhya pradesh)
खजुराहो मंदिर कलात्मक रचना और कामुक मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन कम ही लोग जानते है कि खजुराहो तांत्रिक गतिविधियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान है।
8. काल भैरव मंदिर, मध्य प्रदेश (Kaal bhairav temple, Ujjain) –
इस मंदिर में भैरव की श्याममुखी मूर्ति है। तांत्रिक क्रियाओं के लिए ये मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। देशभर से तांत्रिक और अघोरी सिद्धियों के लिए यहां आते है
9. बालाजी मंदिर, राजस्थान (Mehandipur balaji, Rajasthan) –
यह मंदिर तंत्र की नजर से बहुत पवित्र माना जाता है। कहते है कि जिन लोगो पर प्रेत या आत्मा का साया पड़ जाता है वो यहां झाड़-फूंक के लिए आते है।
ये है दुनिया के 5 सबसे रहस्मय खजाने, जो भी खोजने गया वो वापस नहीं आया
दुनिया के सबसे हॉन्टेट प्लेसेज में शुमार 5 पांच ऐसी जगहें हैं जहां अकूत खजाने भरे पड़े हैं, लेकिन ये बेहद डरावने हैं। माना जाता है कि इन रहस्यमय खजानों को खोजने में कई लोगों की मौत भी हो चुकी है। इसके अलावा कई लोगों को खजाने का कुछ हिस्सा भी मिला, लेकिन वो जिंदा नहीं लौट सके।
द अंबेर रूम का निर्माण 1707 ईस्वी में पर्सिया में किया गया था। यह एक पूरी तरह से एक सोने का चेंबर है। 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाजियों ने इस पर कब्जा कर लिया था। इस खजाने को सुरक्षित रखने के लिए इसे अलग-अलग भागों में बांट दिया। इसके बाद 1943 में इसे एक म्यूजियम में प्रदर्शन के लिए रखा गया। लेकिन आश्चर्य तो यहां है कि उसके बाद ये पूरा चेंबर ही गायब हो गया। इसके बाद आज तक चेंबर का पता नहीं चला और जो इसकी तलाश में गए उनकी मौत हो गई।..
ओक आइलैंड (oak island) के रहस्य को सबसे 1795 में कुछ लड़कों द्वारा उजागर किया गया था। इन लड़कों को कनाडा के नोवा स्कोटिया तट के पास एक छोटे से द्वीप पर हल्की रोशनी दिखी थी। इसके बाद जब ये वहां पहुंचे तो उन्होंने पाया कि किसी ने यहां खुदाई की है। इसके बाद जब इन्हीं लड़कों ने वहां और खुदाई की तो उन्हें लकड़ी और नारियल की परतें मिली। इन लड़कों को यहां एक पत्थर भी मिला जिस पर लिखा था कि 40 फीट की गहराई पर दो मिलियन पाउंड गड़े हैं। इसके बाद बहुत से लोगों ने इस खजाने को खोजने के कोशिश की और आज भी खोज कर रहे हैं, लेकिन किसी को अभी तक कुछ नहीं मिला। बल्कि खजाना खोजते समय अब तक 7 लोगों की मौत हो चुकी है।...
अमरीका के दक्षिण-पश्चिम इलाके में सोने की खदान (the lost dutchman mine) थी। 1510-1524 के बीच स्पेन के फ्रांसिस्को वास्क डी कोरोनाडो ने इस खदान को खोजने की कोशिश की। इस खजाने को खोजने के लिए उन्होंने जिन लोगों को इस काम में लगाया उनकी एक के बाद एक मौत हो गई। हालांकि यहां 1845 में डॉन मिगुएल पेराल्टा को कुछ सोना मिला, लेकिन स्थानीय अपाचे आदिवासियों ने उनको मौत के घाट उतार डाला। 1931 में इसी खजाने को खोजने के चक्कर में एडोल्फ रूथ लापता हो गए और इसके 2 साल बाद उनका कंकाल मिला था। 2009 में भी डेनवर निवासी जेस केपेन ने यह खजाना खोजने की कोशिश की थी लेकिन 2012 में उनका शव मिला।
मैक्सिको के राष्टपति बेनिटो जुआरेज ने 1864 अपने सैनिकों को खजाने के साथ सेन फ्रांसिस्को भेजा था। इसमें सोने के सिक्के और कीमती जेवरात भरे थे। इसके बाद एक सैनिक की रास्ते मौत हो गई तो बाकी सैनिकों इस खजाने को रास्ते में ही गाड़ दिया। सैनिकों को ऐसा करते हुए डियागो मोरेना ने देख लिया था और उसने बाद में इस खजाने को निकाला और दूसरी जगह गाड़ दिया। लेकिन इसके कुछ दिनों बाद उसकी मौत हो गई। हालांकि डियागो की मौत के बाद एक दोस्त जीसस मार्टिनेज ने इस खजाने को पाना चाहा लेकिन उसकी भी मौत हो गई। 1885 में बास्क शेफर्ड को इस खजाने का कुछ हिस्सा मिला था, लेकिन वो ही बाद में उसकी मौत का कारण बना। इसके बाद 1939 में इस खजाने की खुदाई की गई, लेकिन कुछ भी नहीं मिला। इस खजाने को खोजने के वालों में से 9 लोगों की मृत्यु हो गई।
अमरीका में मिलफोर्ड के पास एक छोटा द्वीप (charles island) है। लेकिन इस द्वीप को शापित माना जाता है। कहा जाता है कि 1721 में मैक्सिकन सम्राट गुआजमोजिन का खजाना चोरी कर चोरों ने इस द्वीप पर छुपा दिया था। इसके बाद 1850 में कुछ लोग यहां पर खजाने की तलाश में आए लेकिन उनकी भी मौत हो गई। इसके बाद जो भी इस खजाने को खोजने गया उसकी मौत हो गई।
जानिए क्रिसमस से जुडी परम्पराएं – कौन है सांता, क्यों सजाते है क्रिसमस ट्री
खुशी और उत्साह का प्रतीक क्रिसमस ईसाई समुदाय का सबसे बड़ा त्योहार है। ईसाई समुदाय द्वारा यह त्योहार 25 दिसंबर को यीशु मसीह के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। क्रिसमस से जुुड़ी अनेक परंपराएं व रोचक बाते हैं जैसे क्रिसमस ट्री सजाना, संता का गिफ्ट बांटना व कार्ड भेेजना। ये परंपराएं क्यों है व कब से इनकी शुरुआत हुई आइए जानते हैं इन परंपराओं के बारे में खास बातें….संत निकोलस यानी सांता (Saint Nicholas Santa) –
मान्यता है कि सांता का घर उत्तरी ध्रुव पर रहते और वे उडऩे वाले रेनडियर्स की गाड़ी पर चलते हैं। सांता का यह आधुनिक रूप 19वीं सदी से अस्तित्व में आया उसके पहले ये ऐसे नहीं थे। आज से डेढ़ हजार साल पहले जन्मे संत निकोलस को असली सांता और सांता का जनक माना जाता है, हालांकि संत निकोलस और जीसस के जन्म का सीधा संबंध नहीं रहा है फिर भी आज के समय में सांता क्लॉज क्रिसमस का अहम हिस्सा हैं। उनके बिना क्रिसमस अधूरा सा लगता है।
संत निकोलस का जन्म तीसरी सदी में जीसस की मौत के 280 साल बाद मायरा में हुआ। वे एक रईस परिवार से थे। वे जब छोटे थे तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया। बचपन से ही उनकी प्रभु यीशु में बहुत आस्था थी। वे बड़े होकर ईसाई धर्म के पादरी (पुजारी) और बाद में बिशप बने। उन्हें जरूरतमंदों और बच्चों को गिफ्ट्स देना बहुत अच्छा लगता था। वे अक्सर जरूरतमंदों और बच्चों को गिफ्ट्स देते थे। संत निकोलस अपने उपहार आधी रात को ही देते थे, क्योंकि उन्हें उपहार देते हुए नजर आना पसंद नहीं था। वे अपनी पहचान लोगों के सामने नहीं लाना चाहते थे। इसी कारण बच्चों को जल्दी सुला दिया जाता।
क्रिसमस ट्री (Xmas Tree) –
कहा जाता है जब महापुरुष ईसा का जन्म हुआ तो उनके माता-पिता को बधाई देने आए। देवताओं ने एक सदाबहार फर को सितारों से सजाया। मान्यता है कि उसी दिन से हर साल सदाबहार फर के पेड़ को ‘क्रिसमस ट्री प्रतीक के रूप में सजाया जाता है। इसे सजाने की परंपरा जर्मनी में दसवीं शताब्दी के बीच शुरू हुई और इसकी शुरुआत करने वाला पहला व्यक्ति बोनिफेंस टुयो नामक एक अंग्रेज धर्मप्रचारक था।
इंग्लैंड में 1841 में राजकुमार पिंटो एलबर्ट ने विंजर कासल में क्रिसमस ट्री को सजावाया था। उसने पेड़ के ऊपर एक देवता की दोनों भुजाएं फैलाए हुए मूर्ति भी लगवाई, जिसे काफी सराहा गया। क्रिसमस ट्री पर प्रतिमा लगाने की शुरुआत तभी से हुई। पिंटो एलबर्ट के बाद क्रिसमस ट्री को घर-घर पहुंचाने में मार्टिन लूथर का भी काफी हाथ रहा। क्रिसमस के दिन लूथर ने अपने घर वापस आते हुए आसमान को गौर से देखा तो पाया कि वृक्षों के ऊपर टिमटिमाते हुए तारे बड़े मनमोहक लग रहे हैं।
मार्टिन लूथर को तारों का वह दृश्य ऐसा भाया कि उस दृश्य को साकार करने के लिए वह पेड़ की डाल तोड़ कर घर ले आया। घर ले जाकर उसने उस डाल को रंगबिरंगी पन्नियों, कांच एवं अन्य धातु के टुकड़ों, मोमबत्तियों आदि से खूब सजा कर घर के सदस्यों से तारों और वृक्षों के लुभावने प्राकृतिक दृश्य का वर्णन किया। वह सजा हुआ वृक्ष घर सदस्यों को इतना पसंद आया कि घर में हर क्रिसमस पर वृक्ष सजाने की परंपरा चल पड़ी।
क्रिसमस कार्ड की परंपरा (Tradition of Xmas Card) –
सबसे पहले कार्ड विलियम एंगले द्वारा सन् 1842 में भेजा गया था, क्योंकि वह क्रिसमस का मौका था। इसलिए इसे पहला क्रिसमस कार्ड माना जाता है। कहते हैं कि इस कार्ड में एक शाही परिवार की तस्वीर थी, लोग अपने मित्रों के स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएं देते हुए दिखाए गए थे और उस पर लिखा था विलियम एंगले के दोस्तों को क्रिसमस शुभ हो।
उस जमाने में चूंकि यह नई बात थी, इसलिए यह कार्ड महारानी विक्टोरिया को दिखाया गया। इससे खुश होकर उन्होंने अपने चित्रकार डोबसन को बुलाकर शाही क्रिसमस कार्ड बनवाने के लिए कहा और तब से क्रिसमस कार्डों की शुरुआत हो गई।
अनंतपुर मंदिर, केरल- इस मंदिर का रखवाली करता है शाकाहारी मगर, हाथ से खाता है खाना
भारत में ऐसे कई स्थान हैं जहां की मान्यताओं के बारे में स्थानीय लोगों के अलावा और कोई नहीं जानता। इन मान्यताओं के पीछे बहुत सारे दावे होते हैं। कुछ मान्यताएं इतनी दिलचस्प हैं जिनके बारे में आप भी जानना चाहेंगे साथ ही इन मान्यताओं के बारे में जानकर चौंक जाएंगे। ऐसी ही एक मान्यता की जानकारी आज हम आपको दे रहे हैं…केरल का अनंतपुर मंदिर जो कासरगोड में स्थित है, यह केरल का एकमात्र झील मंदिर है। इस मंदिर की यह मान्यता है कि यहां की रखवाली एक मगरमच्छ करता है। ‘बबिआ’ नाम के मगरमच्छ से फेमस इस मंदिर में यह भी मान्यता है कि जब इस झील में एक मगरमच्छ की मृत्यु होती है तो रहस्यमयी ढंग से दूसरा मगरमच्छ प्रकट हो जाता है। दो एकड़ की झील के बीचों-बीच बना यह मंदिर भगवान विष्णु (भगवान अनंत-पद्मनाभस्वामी) का है। मान्यता है कि मंदिर की झील में रहने वाला यह मगरमच्छ पूरी तरह शाकाहारी है और पुजारी इसके मुंह में प्रसाद डालकर इसका पेट भरते हैं।
पुजारियों के हाथ से प्रसाद खाता है यह ‘शाकाहारी मगरमच्छ’
स्थानीय लोगों का कहना है कि कितनी भी ज्यादा या कम बारिश होने पर झील के पानी का स्तर हमेशा एक-सा रहता है। यह मगरमच्छ अनंतपुर मंदिर की झील में करीब 60 सालों से रह रहा है। भगवान की पूजा के बाद भक्तों द्वारा चढ़ाया गया प्रसाद बबिआ को खिलाया जाता है। प्रसाद खिलाने की अनुमति सिर्फ मंदिर प्रबंधन के लोगों को है। मान्यता है कि यह मगरमच्छ पूरी तरह शाकाहारी है और प्रसाद इसके मुंह में डालकर खिलाया जाता है। स्थानीय लोगों का कहना है कि मगरमच्छ शाकाहारी है और वह झील के अन्य जीवों को नुकसान नहीं पहुंचाता।
अंग्रेज सिपाही ने गोली से मार दिया था मगरमच्छ, अगले की दिन पानी में तैरता मिला वही मगर
कहते है कि 1945 में एक अंग्रेज सिपाही ने तालाब में मगरमच्छ को गोरी मारकर मार डाला और अविश्वसनीय रूप से अगले ही दिन वही मगरमच्छ झील में तैरता मिला। कुछ ही दिनों बाद अंग्रेज सिपाही की सांप के काट लेने से मौत हो गई। लोग इसे सांपों के देवता अनंत का बदला मानते हैं। माना जाता है कि अगर आप भाग्यशाली हैं तो आज भी आपको इस मगरमच्छ के दर्शन हो जाते हैं। मंदिर के ट्रस्टी श्री रामचन्द्र भट्ट जी कहते हैं, “हमारा दृढ़ विश्वास है कि ये मगरमच्छ ईश्वर का दूत है और जब भी मंदिर प्रांगण में या उसके आसपास कुछ भी अनुचित होने जा रहा होता है तो यह मगरमच्छ हमें सूचित कर देता है”।
पत्थर की नहीं 70 से ज्यादा औषधियों से बनी है इस मंदिर की मूर्तियां
इस मंदिर की मूर्तियां धातु या पत्थर की नहीं बल्कि 70 से ज्यादा औषधियों की सामग्री से बनी हैं। इस प्रकार की मूर्तियों को ‘कादु शर्करा योगं’ के नाम से जाना जाता है। हालांकि, 1972 में इन मूर्तियों को पंचलौह धातु की मूर्तियों से बदल दिया गया था, लेकिन अब इन्हें दोबारा ‘कादु शर्करा योगं’ के रूप में बनाने का प्रयास किया जा रहा है। यह मंदिर तिरुअनंतपुरम के अनंत-पद्मनाभस्वामी का मूल स्थान है। स्थानीय लोगों का विश्वास है की भगवान यहीं आकर स्थापित हुए थे।
मान्यता है कि झील में एक मगरमच्छ की मृत्यु होती है तो रहस्यमयी ढंग से दूसरा मगरमच्छ प्रकट हो जाता है।
भीम में कैसे आया 10 हज़ार हाथियों का बल?
पाण्डु पुत्र भीम के बारे में माना जाता है की उसमे दस हज़ार हाथियों का बल था जिसके चलते एक बार तो उसने अकेले ही नर्मदा नदी का प्रवाह रोक दिया था। लेकिन भीम में यह दस हज़ार हाथियों का बल आया कैसे इसकी कहानी बड़ी ही रोचक है।
कौरवों का जन्म हस्तिनापुर में हुआ था जबकि पांचो पांडवो का जन्म वन में हुआ था। पांडवों के जन्म के कुछ वर्ष पश्चात पाण्डु का निधन हो गया। पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। भीष्म को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कुंती सहित पांचो पांण्डवों को हस्तिनापुर बुला लिया।
हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों केवैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भाव नहीं था। परंतु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। तब उसने उचित अवसर मिलते ही भीम को मारने का विचार किया।
दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। उस स्थान का नाम रखा उदकक्रीडन। वहां खाने-पीने इत्यादि सभी सुविधाएं भी थीं। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई।
तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना का नाना था। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए।
जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेंक दिया तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शिविर के समाप्त होने पर सभी कौरव व पाण्डव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। पाण्डवों ने सोचा कि भीम आगे चले गए होंगे। जब सभी हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुंती से भीम के बारे में पूछा। तब कुंती ने भीम के न लौटने की बात कही। सारी बात जानकर कुंती व्याकुल हो गई तब उन्होंने विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा। तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिकों को भीम को ढूंढने के लिए भेजा।
उधर नागलोक में भीम आठवें दिन रस पच जाने पर जागे। तब नागों ने भीम को गंगा के बाहर छोड़ दिया। जब भीम सही-सलामत हस्तिनापुर पहुंचे तो सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब भीम ने माता कुंती व अपने भाइयों के सामने दुर्योधन द्वारा विष देकर गंगा में फेंकने तथा नागलोक में क्या-क्या हुआ, यह सब बताया। युधिष्ठिर ने भीम से यह बात किसी और को नहीं बताने के लिए कहा।
10 भारतीय परंपराएं जो अनूठी होने के साथ उपयोगी भी हैं
भारत अपने आप में एक अनूठा देश है जहां हर चीज को धर्म और समाज के साथ जोड़ दिया गया है। हालांकि ऊपर से देखने पर इनका कोई विशेष महत्व नहीं दिखाई पड़ता परन्तु सूक्ष्म रूप से ये हमें मानसिक, शारीरिक तथा आध्यात्मिक रूप से प्रभावित करते हैं। इसी कारण से हमारे पूर्वजों ने कुछ ऐसे धार्मिक नियम बनाएं जो सामाजिक रूप से समाज में उपयोगी तो थे ही, साथ में हमारे शरीर पर भी उनका अच्छा असर होता है। आइए जानते हैं ऐसी ही 10 परम्पराओं के बारे में...
पुरुषों के सिर पर चोटी क्यों
यदि आप यह मानते हैं कि सिर्फ भारतीय पुरुष ही चोटी रखते हैं तो सबसे पहले यह जान लें कि अन्य एशियाई देशों यथा चीन, कोरिया तथा जापान में भी पुरुषों के सिर पर चोटी रखने की परंपरा है। इसके पीछे भी एक वैज्ञानिक कारण बताया जाता है। सुश्रुत ऋषि के अनुसार सिर हमारे सिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहां सहस्त्रार चक्र में शरीर की सभी नसें आकर मिलती है जिसे ब्रह्मरंध्र भी माना गया है। इसी ब्रह्मरंध्र को जागृत करने के लिए पुरुषों में शिखा बंधने की परंपरा शुरू हुई। शिखा रखने से मस्तिष्क का यह हिस्सा सक्रिय हो जाता है और हमारी शक्तियों को बढ़ा देता है।
हमें मंदिर जाकर भगवान की परिक्रमा क्यों करनी चाहिए
भारतीय मंदिरों को वास्तु के विशेष नियमों का पालन करते हुए बनाया जाता है। इसमें मंदिर के गर्भगृह (अथवा मूलस्थान) को इस प्रकार से बनाया जाता है कि वहां पर पृथ्वी की अधिकतम चुंबकीय ऊर्जा उत्पन्न हो सके। गर्भगृह में ही मूर्ति स्थापित की जाती है। साथ ही ईश्वर प्रतिमा के चरणों में तांबे से बने यंत्र, घंटियां, कलश आदि वस्तुएं स्थापित की जाती हैं। तांबा एनर्जी का सुचालक होने के कारण पृथ्वी की सकारात्मक ऊर्जा को प्रतिमा की तरफ आकर्षित करता है। इससे प्रतिमा के चारों तरफ आभामंडल बन जाता है। जब हम प्रतिमा के चारों तरफ परिक्रमा करते हैं तो यह शक्ति हमारे शरीर के अंदर भी प्रवेश करती है। हालांकि यह प्रक्रिया बहुत ही धीमे और अदृश्य रूप में होती है परन्तु लंबे समय तक किसी मंदिर में जाकर परिक्रमा करने पर इसका लाभ स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है।
भारतीय व्रत क्यों करते हैं
आयुर्वेद में बताया गया है कि हमारा शरीर प्रकृति द्वारा बनाई गई स्वसंचालित मशीन है जो 24 घंटे, सातों दिन मृत्यु तक लगातार बिना रूके काम करती रहती है। हमारा पाचन संस्थान भी इसी का एक हिस्सा है। लगातार भोजन करने और उसे पचाने से हमारे पाचन संस्थान पर दबाव पड़ता है जिससे उसमें टॉक्सिक पदार्थ पैदा हो जाते हैं। सप्ताह में एक दिन व्रत करने पर हमारा पेट स्वयं ही इन पदार्थों को बाहर निकाल देता है जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। वैज्ञानिकों के अनुसार नियमित रूप से व्रत करने के कई फायदे हैं, शोध के अनुसार व्रत करने से कैंसर, कार्डियोवस्कुलर डिजीडेज, डायबिटीज, पाचन संबंधी बीमारियां दूर रहती हैं।
सुबह के समय सूर्य नमस्कार तथा सूर्य को अर्ध्य चढ़ाना
सूर्य नमस्कार करने के लिए कुछ नियम बताए गए हैं, यथा इसे सुबह ब्रह्म मुहूर्त में ही करना चाहिए। इसके पीछे भी कई वैज्ञानिक कारण हैं। सबसे पहला सुबह का समय ब्रह्ममूहूर्त माना जाता है इस समय मस्तिष्क की सक्रियता सर्वाधिक होती है, अत: इस समय किया गया कार्य अधिक एकाग्रता तथा मनोयोग से होता है जिससे उसमें सफलता की संभावना बढ़ जाती है। सुबह सूर्य को अर्ध्य चढ़ाते समय गिरते हुए जल से सूर्य के दर्शन करना हमारी आंखों के लिए अच्छा रहता है। इससे आंखों की रोशनी बढ़ती है। इसके साथ-साथ सुबह के समय सूर्य नमस्कार करने से पूरे शरीर का योगाभ्यास हो जाता है तथा शरीर को दिन भर के लिए आवश्यक ऊर्जा शक्ति मिल जाती है।
हम चरण स्पर्श क्यों करते हैं
भारतीयों में अपने से बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करने की परंपरा है, इसके प्रत्युत्तर में बड़े भी हमारे सिर पर अपना हाथ रखकर आशीर्वाद देते हैं। सबसे पहले तो इस तरह चरण छूने से हम अपने बड़ों के प्रति अपनी भावनाएं तथा आदर दिखाते हैं। इसके साथ ही जब हम अपने हाथों से उनके पैर छूते हैं तथा वो अपना हाथ सिर पर रखकर आशीर्वाद देते हैं तो यह तरह का प्राकृतिक सर्किट बन जाता है जिससे उनकी ऊर्जा का प्रवाह हमारे अंदर होने लगता है। उस समय हमारे हाथ की ऊंगलियां तथा सिर रिसेप्टर का कार्य करने लगती हैं तथा हम उनमें मौजूद जैविक ऊर्जा को ग्रहण करने लगते हैं। यही कारण है कि सभी लोग अपने से बड़े विशेष तौर पर साधु-संतों के चरण छूकर उनका आशीर्वाद लेना चाहते हैं।
हम तुलसी की पूजा क्यों करते हैं
तुलसी के पेड़ का आयुर्वेद में बहुत महत्व बताया गया है। इसकी पत्तियों में पारा होता है जिसके कारण इसमें बैक्टीरिया को मारने की क्षमता है। प्रतिदिन एक तुलसी का पत्ता खाने से शरीर स्वस्थ रहता है तथा छोटी-मोटी बीमारियों का शरीर पर असर नहीं होता। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि तुलसी के निकट सांप, मच्छर तथा मक्खियां जैसे हानिकारण जीवन नहीं आते। ऐसे में इसे घर में रखने पर जहां इन जीवों से बचाव होता है वहीं आवश्यकता पडऩे पर तुलसी की पत्तियों का उपयोग भी किया जा सकता है। परन्तु तुलसी की पत्तियों को कभी भी दांतों से नहीं चबाना चाहिए वरन उसे पानी के साथ निगल लेना चाहिए अन्यथा दांतों के खराब होने का खतरा बना रहता है।
हम पीपल की पूजा क्यों करते हैं
यदि उपयोग की दृष्टि पीपल का पेड़ आम व्यक्ति के लिए साधारण हो सकता है परन्तु आयुर्वेद के अनुसार इसका दवाईयों में बहुत प्रयोग होता है। परन्तु पीपल का पेड़ ही एक ऐसा पेड़ है जो रात में भी ऑक्सीजन का निर्माण करता है। पीपल के इसी गुण के चलते हिंदू इसे भगवानस्वरूप मानते हैं तथा इसकी पूजा करते हैं।
महिलाएं हाथों में चूडिय़ां क्यों पहनती हैं
हाथों की कलाई में नसों का जाल होता है जहां हाथ कर आदमी की धड़कन देखी जाती है। यहां पर सही तरह से दबाव देकर शरीर के रक्तचाप को नियमित किया जा सकता है। इसी कारण से औरतों के लिए चूडियां पहनना अनिवार्य किया गया। इससे कलाईयों पर चूडियों का घर्षण होता है और उनकी नसों पर दबाव पड़ता है फलस्वरूप उनका स्वास्थ्य ठीक रहता है।
विवाहित स्त्रियां मांग में सिंदूर क्यों भरती हैं
विवाहित स्त्रियों द्वारा मांग में सिंदूर भरने का कारण उनके वैवाहिक जीवन से जुड़ा हुआ है। सिंदूर को टर्मेरिक लाइम तथा पारे से मिलाकर बनाया जाता है। पारा जहां शरीर के ब्लडप्रेशर को नियमित करता है वहीं औरतों की कामेच्छा को भी उत्तेजित करता है। इससे मस्तिष्क का तनाव भी दूर होता है। इसी कारण से विधवाओं तथा कुंवारी महिलाओं के लिए मांग में सिंदूर लगाना निषेध किया गया है। परन्तु सिंदूर का पूरा फायदा उठाने के लिए ललाट के ठीक बीच में लगाना
हम नाक और कान क्यों छिदवाते हैं
भारतीय महिलाओं में प्रचलित इस परंपरा का संबंध पूरी तरह से शारीरिक स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है। भारतीय चिकित्साशास्त्रियों के अनुसार कान और नाक की कुछ नसों का सीधे दिमाग के सोचने वाले प्रतिक्रिया करने वाले भाग से संबंध होता है। नाक-कान छिदवाने से दिमांग की इन नसों पर दबाव पड़ता है जिससे मस्तिष्क की अतिसक्रियता समाप्त होकर नियंत्रण में आती है।
सत्य घटना – सांप ने काटा, डाकटरों ने मृत घोषित किया, घरवालों ने गंगा में बहाया, 14 साल बाद जिन्दा लौट आया युवक
कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाये घट जाती है जिन पर यकीन करना मुश्किल होता है। ऐसी ही एक घटना हाल ही में बरेली के देबरनिया थाना क्षेत्र के भुड़वा नगला गांव में घटी जब उस गाँव का मृत लड़का 14 साल बाद जिन्दा घर लौट आया। लड़के का नाम छत्रपाल व उसके पिता का नाम नन्थू लाल है। नन्थू लाल के घर बेटे को देखने वालों की भीड़ जमा हो रही है। लड़के के परिजन और गाँव वाले उसको पहचान चुके है। हर जगह छत्रपाल चर्चा का विषय बना हुआ है। लोग इस चमत्कार को नमस्कार करने पर मजबूर हैं। आइये अब हम आपको छत्रपाल के मरने से लेकर वापस लौटने कि घटना को विस्तारपूर्वक बताते है।
छत्रपाल
घटना कुछ इस प्रकार है कि आज से 14 साल पहले छत्रपाल अपने पिता नन्थू लाल के साथ खेत में काम कर रहा था जहा पर उसे एक ज़हरीले सांप ने डस लिया। सांप का ज़हर तेजी से उसके शारीर में फैलने लगा। उसे तुरंत नज़दीकी अस्पताल ले जाया गया पर तब तक देर हो चुकी थी, डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। परिजन उसके शव को लेकर वापस घर आ गए और उसके अंतिम संस्कार कि क्रिया शुरू कर दी। हिंदू मान्यता के मुताबिक, पवित्र व्यक्ति, बच्चे, गर्भवती, कुष्ठ रोग और सांप के काटे जाने वाले व्यक्ति का दाह संस्कार नहीं किया जाता है। इन सभी को नदी में बहा दिया जाता है। अतः लड़के के परिजनो ने उसका अंतिम संस्कार करते हुए उसके शव को गंगा में बहा दिया। बहता हुआ छत्रपाल हरि सिंह सपेरे को मिला, जिसने उसका जहर उतार कर उसे फिर से जिन्दा कर दिया। छत्रपाल के साथ हरी सिंह भी उसके गाँव आया हुआ है।
छत्रपाल व हरी सिंह
सपेरे हरी सिंह ने बताया की उसने यह विद्या अपने गुरु से सीखी थी, क्योंकि वह भी मर कर ही जिन्दा हुआ था। उनके भी शव का अंतिम संस्कार कर गंगा में बहा दिया गया था। बहते हुए वह बंगाल पहुंच गए, जहां पर एक गुरु ने उनको जिन्दा किया। हरी सिंह कहते हैं की एक परंपरा है कि यदि हम किसी को जिन्दा करते हैं तो चौदह साल तक उसे हमारे पास शिष्य बन कर रहना पड़ता है। सिर्फ छत्रपाल ही नहीं बल्कि कई ऐसे शिष्य हैं जो मरकर जिन्दा हुए हैं और उनके साथ घूम रहे हैं।
हरी सिंह
उन्होंने कहा कि वह सर्पदंश से मरे हुए लोगों की निशुल्क मदद करते हैं और इसके लिए वह जगह-जगह घूमते रहते हैं। साथ ही लाइलाज बीमारियों का भी फ्री में इलाज करते हैं। सांप के काटने से मर चुके दर्जनों लोगों को इन्होने जीवन दान देकर उनके परिजनों को बगैर कीमत वसूले सौंपे हैं। मौत के बाद छत्रपाल को जीवन दान देकर सपेरा हरी सिंह अपने कबीले की परंपरा को बताते हुए कहते हैं कि जिन्दा किया हुआ इंसान कम से कम चौदह वर्ष तक हमारे साथ रहता है। उसके बाद वह अपनी या परिजनों की मर्जी से अपने घर जा सकता है नहीं तो वह जीवन भर हमारे साथ रहे और हमारी तरह बीन बजाय और गुरु शिक्षा ग्रहण करते हुए साधू रूपी जीवन जिए।
सपेरे हरी सिंह दावा करते हैं कि सांप का काटा हुआ इंसान मर जाए और उसके नाक, कान औऱ मुंह से खून नहीं निकला हो तो वह एक महीने दस दिन बाद भी उसे जिन्दा कर लेते हैं। इसी तरह जिन्दा किए हुए कई लोग आज अपने परिवार के साथ जिंदगिया जी रहे हैं। सांप के काटे का इलाज सबसे आसान है। इस इलाज में इस्तेमाल में लाने वाला मुख्य यंत्र साइकिल में हवा डालने वाला पम्प होता है। इसी पम्प और कुछ जड़ी बूटियों से वह मरे हुए लोगों को फिर से जीवन दान देते हैं। बहरहाल जो भी हो यहां सब कुछ फ़िल्मी अंदाज में हुआ। मरे हुए इंसान का दोबारा जिन्दा होकर आना अपने आप में चमत्कार है।
सपेरे हरी सिंह दावा करते हैं कि सांप का काटा हुआ इंसान मर जाए और उसके नाक, कान औऱ मुंह से खून नहीं निकला हो तो वह एक महीने दस दिन बाद भी उसे जिन्दा कर लेते हैं। इसी तरह जिन्दा किए हुए कई लोग आज अपने परिवार के साथ जिंदगिया जी रहे हैं। सांप के काटे का इलाज सबसे आसान है। इस इलाज में इस्तेमाल में लाने वाला मुख्य यंत्र साइकिल में हवा डालने वाला पम्प होता है। इसी पम्प और कुछ जड़ी बूटियों से वह मरे हुए लोगों को फिर से जीवन दान देते हैं। बहरहाल जो भी हो यहां सब कुछ फ़िल्मी अंदाज में हुआ। मरे हुए इंसान का दोबारा जिन्दा होकर आना अपने आप में चमत्कार है।
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